Sunday 27 March 2016

‘लिब्रलाइजेशन/ट्रांसफॉर्मेशन’ के नाम पर रेलवे का निजीकरण/आउटसोर्सिंग न किया जाए
जीएम, डीआरएम और पीएचओडी’ज के पैनल समयपूर्व या तीन महीने पहले बनाए जाएं
देबरॉय कमेटी ने भारतीय रेल की कार्य-प्रणाली का गहराई से अध्ययन-विश्लेषण नहीं किया
कमेटी को रेल-प्रणाली की विशिष्टताओं, जटिलताओं और महत्वपूर्ण भूमिका की समझ नहीं
सभी मान्यताप्राप्त संगठनों के बिना यह ज्ञापन सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बन गया है
सुरेश त्रिपाठी
'भारत सरकार और रेल मंत्रालय द्वारा भारतीय रेल के वर्षों पुराने, परीक्षित, विश्वसनीय और पूरी तरह से स्थापित सिस्टम को ‘लिब्रलाइजेशन’ एवं ‘ट्रांसफॉर्मेशन’ के नाम पर भारतीय रेल में निजीकरण और आउटसोर्सिंग की नीतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है. फेडरेशनों को विश्वास में लिए बिना अथवा संपर्क किए बिना ही ट्रेन सेट का विदेशों से आयात किया जा रहा है, और 13 वर्षों तक उनका रख-रखाव करने की जिम्मेदारी भी निजी कंपनी को ही सौंपी जा रही है. मधेपुरा और मढौरा की दो उत्पादन इकाईयां भी क्रमशः जनरल इलेक्ट्रिक, अमेरिका और अल्स्टोम, फ्रांस को आठ-आठ सौ इलेक्ट्रिक एवं डीजल इंजन की सुनिश्चित खरीद की गारंटी के साथ सौंप दी गई हैं. इसी के साथ उन्हें ही 13 वर्षों तक इन इंजनों का रख-रखाव भी सौंप दिया गया है. यह निर्णय निश्चित रूप से सरकार और श्रमिक संगठनों के औद्योगिक संबंधों को प्रभावित करने वाले हैं.'
उपरोक्त मजमून ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन (एआईआरएफ) और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमेन (एनएफआईआर) द्वारा संयुक्त रूप से हस्ताक्षरित ज्ञापन का है. चेयरमैन, रेलवे बोर्ड को संबोधित चार पेज का यह संयुक्त ज्ञापन 19 मार्च 2016 (पत्र सं. आईवी/एसआर/2014/पार्ट-3) को दोनों फेडरेशनों द्वारा दिया गया है. इस पर एआईआरएफ के महामंत्री कॉम. शिवगोपाल मिश्रा और एनएफआईआर के महामंत्री डॉ. एम. राघवैया ने हस्ताक्षर किए हैं. इसमें कहा गया है कि मात्र 34 किमी. से शुरू हुई भारतीय रेल वर्तमान में 65 हजार किमी. तक विस्तारित हो चुकी है, जो कि आज अपनी इसी सुनियोजित व्यवस्था के तहत अपने 10 हजार लोकोमोटिव और 69 हजार यात्री कोचों तथा 2.5 लाख से ज्यादा माल वैगनों के जरिए देश को सस्ती-सुलभ और सुरक्षित परिवहन सेवा मुहैया करा रही है.
ज्ञापन में कहा गया है कि भारतीय रेल, भारत सरकार के संपूर्ण स्वामित्व वाली सरकारी संस्था है. विश्व की एक सबसे बड़ी बुनियादी यातायात संस्था में सुमार भारतीय रेल प्रतिदिन 2.5 करोड़ यात्रियों सहित प्रतिवर्ष 840 करोड़ यात्रियों को ढ़ोती है और 1100 मिलियन टन प्रतिवर्ष माल का परिवहन करती है. भारतीय रेल एक आत्म-निर्भर संस्था है, जिसकी खुद की लोकोमोटिव, वैगन, कोच, पहिया, धुरा और इलेक्ट्रिक मोटर्स आदि-आदि बनाने/निर्माण करने की उत्पादन इकाईयां देश के विभिन्न स्थानों पर स्थापित हैं. इसके अलावा भारतीय रेल अपनी विभिन्न उत्पादन इकाईयों में अपने ज्यादातर रोलिंग स्टॉक और भारी इंजीनियरिंग कंपोनेंट्स का खुद उत्पादन करती है, जिसका नियंत्रण सीधे रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) के पास है.
हंसते-मुस्कराते-खिलखिलाते रहिए ! दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिए !! चित्र में रेलमंत्री सुरेश प्रभु और रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा के साथ एआईआरएफ के महामंत्री कॉम. शिवगोपाल मिश्रा. (नीचे) एनएफआईआर के महामंत्री डॉ. एम. राघवैया.
दोनों फेडरेशनों ने कहा है कि भारतीय रेल की संपूर्ण कार्य-प्रणाली अत्यंत जटिल है, जो कि अपने जीवंत ढ़ांचे के कारण देश के करोड़ों लोगों की यातायात संबंधी जरूरतों को पूरा करते हुए चौबीसों घंटे और साल के 365 दिन लगातार चलती रहती है. भारतीय रेल के पास विभिन्न वर्गों के 13 लाख रेलकर्मियों की एक कुशल और प्रशिक्षित अपनी वर्क-फोर्स है, जो समर्पित भाव से न सिर्फ सफलतापूर्वक इस जटिल व्यवस्था को पिछले 162 सालों से लगातार चला रही है, बल्कि प्रतिवर्ष यात्री यातायात एवं माल परिवहन के निर्धारित लक्ष्य को भी प्राप्त कर रही है. फेडरेशनों को इस बात का गर्व है कि भारतीय रेल में पिछले चार दशकों में एक दिन की भी हानि (नो लॉस ऑफ मैन डेज) नहीं हुई है.
दोनों फेडरेशनों ने रेलवे की तमाम जटिलताओं, चुनौतीपूर्ण कार्य-प्रणाली, भिन्न विभागों के तहत कार्यरत विभिन्न कैटेगरी के रेलकर्मियों की जिम्मेदारियों की विशेष प्रकृति का उल्लेख करते हुए इन्हें बांटने वाली कमेटियों, खासतौर पर बिबेक देबरॉय कमेटी, की भर्त्सना की है. उन्होंने ज्ञापन में कहा है कि बिबेक देबरॉय कमेटी ने भारतीय रेल को दो भागों - पालिसी मेकिंग और ऑपरेशन - में बांटने की सिफारिश की है. इससे रेल प्रणाली की सुचारु व्यवस्था में भारी विसंगतियां पैदा होंगी, क्योंकि ऑपरेशन इंचार्ज रेलवे के फंक्शनिंग सिस्टम की मूलभूत अथॉरिटी होते हैं. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि फेडरेशनों द्वारा जो इनपुट दिए गए थे, देबरॉय कमेटी की रिपोर्ट में उनका कहीं कोई जिक्र नहीं है. फेडरेशनों का मानना है कि देबरॉय कमेटी ने भारतीय रेल की कार्य-प्रणाली का गहराई से अध्ययन-विश्लेषण नहीं किया है, और न ही कमेटी के सदस्यों को रेल प्रणाली की विशिष्टताओं, जटिलताओं और राष्ट्रीय यातायात व्यवस्था (नेशनल लाइफ-लाइन) में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका की कोई समझ रही है.
फेडरेशनों का मानना है कि भारतीय रेल को वास्तव में रेल लाइनों के बाटल-नेक को खत्म करने, भीड़ को नियंत्रित और वितरित करने के लिए त्वरित मापदंड एवं निर्णय क्षमता, रेलवे ट्रैक का विस्तार, गति बढ़ाने, ट्रेनों की अनवरत आवाजाही के लिए सुनिश्चित व्यवस्था आदि की जरुरत है. कार्य-कुशलता बढ़ाने के लिए उक्त कुछ बड़े मुद्दे हैं, जिन पर प्राथमिकता के तौर पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. पुनर्गठन अथवा संरचनात्मक परिवर्तन के नाम पर वर्तमान व्यवस्थित सिस्टम में किसी भी प्रकार की बेजा-दखलंदाजी न सिर्फ श्रमिक एवं उत्पादकता विरोधी साबित होगी, बल्कि और वर्तमान रनिंग सिस्टम के लिए घातक सिद्ध हो सकती है. उन्होंने ज्ञापन में कहा है कि आउटसोर्स्ड स्टाफ अथवा ठेकेदार को सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब होता है, उनके लिए देश सेवा अथवा देश के लिए रेल उद्योग के विकास का कोई अर्थ नहीं होता. वह एक ‘रेल परिवार’ की तरह रेलवे के हित या विकास लिए विचार नहीं करता है.
ज्ञापन में कहा गया है कि विद्युतीकरण रेलवे के दीर्घ भविष्य के लिए जरूरी है. शहरी यातायात, ग्रामीण विद्युतीकरण हो, नाभिकीय या पनबिजली हो, अथवा पवन ऊर्जा या यहां तक कि ई-रिक्शा हो, सभी जगह यही पैमाना विश्व स्तर पर अपनाया जा रहा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय रेल की प्राथमिकताएं इस मामले में अलग दिशा में जा रही हैं. भारतीय रेल 25 केवी ओएचई लाइन के नीचे डीजल इंजन चलाने की दिशा में दौड़ रही है. जबकि एक डीजल-सह-विद्युत लोको की लागत पर एक समान क्षमता वाले दो इंजनों का निर्माण सीएलडब्ल्यू और डीएलडब्ल्यू में अलग-अलग किया जा सकता है. तेज गति ट्रेनों, भारी ढुलाई, भारी उपनगरीय यातायात, भारी खनिज ट्रैफिक सर्किट, यहां तक कि मेट्रो रेलों आदि में भी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की भागीदारी भारत सहित विश्व स्तर पर बढ़ी है और भारतीय रेल में भी इसे भारी प्रोत्साहन दिए जाने की जरुरत है.
इसके अलावा यह भी देखने में आया है कि रेलवे बोर्ड के स्तर पर भी कुछ पुनर्गठन की प्रक्रिया चलाई जा रही है, जिसके तमाम हानिकारक परिणाम, विशेष रूप से इंजीनियरिंग एवं मैकेनिकल विभागों में, आने वाले समय में देखने को मिलेंगे. जो भी हो रहा है, वह निश्चित रूप से पारदर्शी और निष्पक्ष तौर पर किया जाना चाहिए और संगठित लेबर को विश्वास में लिए बिना नहीं होना चाहिए, वरना इसके अमल में बहुत सारी जटिलताएं और समस्याएं पैदा हो सकती हैं. ज्ञापन में कहा गया है कि रेलवे बोर्ड का गठन दशकों पहले नीति निर्माण और योजनाएं बनाने के लिए किया गया था. रेलवे बोर्ड की भूमिका को पुनर्परिभाषित किए जाने की आवश्यकता तो है. इसके लिए ऑपरेशनल पार्ट जोनल रेलों तक सीमित किया जाना चाहिए, जिसमें बोर्ड मेंबर्स की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे नीति एवं योजना निर्माण की अपनी प्रमुख भूमिका को भूलकर पन्क्चुअलिटी मॉनिटरिंग, ट्रांसफर्स, पोस्टिंग्स सहित विशेष रूप से माल ढुलाई के लिए रेकों के आवंटन आदि अन्य अनावश्यक और अनुत्पादक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं. यह अधिकार अतिरिक्त मेंबर्स और महानिदेशकों (डीजी) को सौंपे जा सकते हैं, जबकि नीति एवं योजना निर्माण का काम चेयरमैन, रेलवे बोर्ड तथा अन्य बोर्ड मेंबर्स के स्तर पर सीमित किया जाना चाहिए. नीतिगत मुद्दों पर रेलवे बोर्ड द्वारा सामूहिक निर्णय लिया जाए और जहां कहीं कोई मतभेद हों, वहां बहुमत के निर्णय को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
दोनों फेडरेशनों का मानना है कि लाइन क्षमता बढ़ाने और लाइनों पर अत्यधिक दबाव को कम करने के लिए वर्तमान लाइनों के दोहरीकरण-तिहरीकरण आदि पर तेजी से अमल किया जाना चाहिए. सबसे पहले उन लाइनों को भारी प्राथमिकता दी जानी चाहिए, जिन पर गाड़ियों का बहुत ज्यादा दबाव या ट्रैफिक है. इसके लिए केंद्र सरकार को बजटरी सहायता देनी चाहिए. रोलिंग स्टॉक का अधिक से अधिक उपयोग करने और टर्न-ए-राउंड बढ़ाने के लिए टर्मिनल्स को तेजी से विस्तारित किया जाना चाहिए. विभिन्न नई लाइनों के बिछाने के प्रस्ताव पर पुनर्विचार किया जाए और जो लाइनें अवांछित अथवा अनुत्पादक हों, उन्हें रद्द किया जाना चाहिए. नई लाइनों की जरूरत पर तभी विचार किया जाना चाहिए, जब वह वित्तीय रूप से लाभप्रद हों, या उनकी वास्तविक जरूरत हो, अथवा उनका अपेक्षित और संतोषजनक ‘रेट ऑफ रिटर्न’ हो. ऐसी रेल परियोजनाओं को रेलवे पर नहीं लादा जाना चाहिए, जो कि सिर्फ सामाजिक या राजनीतिक उद्देश्य से बनाई गई हों. ऐसी सभी रेल परियोजनाओं के निर्माण और उनकी संपत्तियों के रख-रखाव की लागत अथवा फंडिंग केंद्र सरकार द्वारा वहन की जानी चाहिए.
ज्ञापन में दोनों फेडरेशनों ने कहा है कि महाप्रबंधकों (जीएम), मंडल रेल प्रबंधकों (डीआरएम) और विभाग प्रमुखों (पीएचओडी’ज) आदि के पैनल पर्याप्त समय पूर्व (अग्रिम) अथवा वैकेंसी होने से तीन महीने पहले बनाए जाने चाहिए. फेडरेशनों का कहना है कि अधिकारियों की चयन प्रक्रिया (सिलेक्शन प्रोसीजर) न सिर्फ पारदर्शी हो, बल्कि अनावश्यक लॉबिंग और जोड़-तोड़ की संभावनाओं को खत्म करने तथा शिकायतों से बचने के लिए सभी स्तर की चयन प्रक्रिया एक निर्धारित समय पर होनी चाहिए. व्यवस्था में प्रतिभावान अधिकारियों को प्रोत्साहन देने हेतु सेवानिवृत्ति की आयु से अधक किसी भी अधिकारी को सेवा-विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए.
दोनों फेडरेशनों ने इस संयुक्त ज्ञापन के माध्यम से सरकार (रेल मंत्रालय) से आग्रह किया है कि उपरोक्त सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए ‘लिब्रलाइजेशन’ और ‘ट्रांसफॉर्मेशन’ के नाम पर रेलवे के निजीकरण एवं आउटसोर्सिंग की नीति पर अमल न किया जाए, क्योंकि इससे रेलवे की उत्पादकता बुरी तरह प्रभावित हो सकती है. उसकी यह नीतियां भारतीय रेल को दशकों पीछे ढ़केल देंगी. दोनों फेडरेशनों ने सभी नीतिगत मुद्दों पर सरकार के साथ सामंजस्यपूर्ण बातचीत की आशा व्यक्त करते हुए कहा है कि सरकार को रेलवे और रेलकर्मियों के हित में उपरोक्त सुझावों पर अमल करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए.
इसके साथ ही दोनों फेडरेशनों ने यह भी कहा है कि रेल मंत्रालय को इस पर भी संज्ञान लेना चाहिए कि छठवें वेतन आयोग की विसंगतियां अब तक दूर नहीं की गई हैं. इसके साथ ही नई पेंशन योजना (एनपीएस) सहित दोनों फेडरेशनों के साथ हुए विभिन्न समझौतों पर भी आज तक यथोचित अमल नहीं हो पाया है. जबकि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों ने रेलवे स्टाफ को बहुत बुरी तरह से हतोत्साहित किया है, जिससे सभी वर्ग के रेलकर्मियों में भारी असंतोष पनप रहा है और वे आंदोलन पर उतारू हो रहे हैं. अतः रेल मंत्रालय को दोनों फेडरेशनों के साथ यथाशीघ्र गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करके उपरोक्त सभी विसंगतियों एवं असहमतियों पर कोई सर्वमान्य हल निकालना चाहिए.
बहरहाल, उपरोक्त संपूर्ण ज्ञापन को पढ़ने पर इसमें कहीं न कहीं किसी भारी कमी का आभास हो रहा है. सर्वप्रथम इसमें यह भी कहा जाना चाहिए था कि सरकार को भारतीय रेल या रेलवे बोर्ड की ‘लिब्रलाइजेशन’ या ‘ट्रांसफॉर्मेशन’ अथवा तथाकथित ‘रिस्ट्रक्चरिंग’ जो भी करनी हो, उसके बारे में सबसे पहले प्रबंधन में रेलकर्मियों की भागीदारी उर्फ पार्टिसिपेशन ऑफ रेलवे एम्प्लाइज इन मैनेजमेंट (प्रेम ग्रुप) में आकर उसे सभी मान्यताप्राप्त रेल संगठनों के समक्ष अपना प्रस्ताव रखते हुए भावी योजनाओं-परियोजनाओं पर विचार-विमर्श करना चाहिए. जब रेलवे में ऐसी एक मजबूत वैधानिक व्यवस्था मौजूद है, तब सरकार या रेल प्रशासन की भारतीय रेल के हित-अहित के लिए अकेले की मनमानी कैसे चल सकती है? इसके अलावा इस ज्ञापन की महत्ता तब निश्चित रूप से ज्यादा होती, जब कि इसमें सभी पांचो या सातों मान्यताप्राप्त रेल संगठनों ने संयुक्त रूप से हस्ताक्षर किए होते. इसके बिना यह ज्ञापन सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह गया है.

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